उदासियाँ के उद्देश्य
सुल्तानपुर में ज्ञान प्राप्त करने के बाद, गुरु नानक देव जी ने घर छोड़ने और लंबी यात्रा पर जाने का फैसला किया। उनकी यह यात्राओ के लिए उदासियाँ शब्द प्रयोग किया गया क्योंकि इनके बीच में उन्होंने गृहस्थ जीवन त्यागकर उदासी साधु का जीवन व्यतीत किया। अपनी यात्रा के लिए उन्होंने हिंदुओं, जैन, बौद्ध, मुस्लिम और अन्य संप्रदायों के तीर्थ स्थानों (Places of Pilgrimage) को इस लिए चुना ताकि वे बड़ी संख्या में इकट्ठे होने वाले लोगों को धर्म और ईश्वर के संबंध में ठीक ज्ञान दिया जा सके और उनमें प्रचलित कर्मकांडों, झुठे रीति रिवाजों, अंधविश्वासों और पाखंडों का खंडन करने के लिए। इसलिए, उनकी लंबी यात्राओं का उद्देश्य किसी भी धार्मिक लाभ को प्राप्त करना या परलोक सुधारने का नहीं था बल्कि (1) उनके धार्मिक विचारों का प्रचार करना था। (ii) लोगों को धर्म और ईश्वर के वास्तविक स्वरूप की व्याख्या करना। (ii) लोगों में प्रचलित झूठे रीति-रिवाजों को खत्म करके, संयम, त्याग और सदाचार का जीवन जीने के लिए प्रेरित करना था। इन उदासियों में लगभग 20-25 साल लगे।
हमें उनकी उदासियों के बारे में उचित जानकारी प्राप्त करने के लिए कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। (i) गुरु जी ने अपनी यात्रा का कोई वर्णन नहीं लिखा। (ii) उनकी उदासियों का कोई समकालीन वर्णन नहीं मिलता। (iii) समय के साथ उनके उदासियों से संबंधित कई स्मारक भवन नष्ट हो गए। (iv) उनके उदासियों से जुड़े कई पुराने स्थानों के नाम अब बदल गए हैं। इसलिए मध्यकालिन नामों को ठीक तरह से ढूंढना मुश्किल है और (vi) जनम सखियाँ में उन यात्राओं के बारे में अलग-अलग जानकारी प्राप्त होती हैं। यात्राओं की तारीखों में भी एक बड़ा अंतर है।
इन कठिनाइयों के बावजूद हमें उनकी उदासियों के संबंध में जन्म साखियो, भाई सरूप दास भल्ला के महिमा प्रकाश, भाई संतोख सिंह के नानक प्रकाश, महंत गणेशा सिंह के नानक सुरजोदय, ज्ञानी ज्ञान सिंह के तारिख-ए-गुरु खालसा और मक्के मदीने के गोश्टा आदि से जानकारी प्राप्त होती है।
ऐसा माना जाता है कि गुरु जी ने उत्तर में कैलाश परबत से दक्षिण में रामेश्वरम और पश्चिम में पाकपटन से लेकर पूर्व में असम तक, प्रदेशों की यात्रा की। वह श्रीलंका, मक्का-मदीना और बगदाद तक भी गए। डॉ फौजा सिंह और डॉ क्रिपाल सिंह के विचार अनुसार, उनके तीन उदासीयाँ की। दक्षिण भारत की उदासी को पहली उदासी का हिस्सा थी और सैदपुर की उदासी को मक्का-मदीना की उदासी का हिस्सा माना जाना चाहिए। लेकिन कुछ विद्वान इनकी संख्या पांच मानते हैं। उनकी उदासीयों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है -
पहली उदासी (1499-1509)
पहली उदासी में गुरु साहिब को लगभग 12 वर्षों का समय लगा था। इस में गुरु जी ने सय्यदपुर, तालुम्बा, कुरुक्षेत्र, पानीपत और दिल्ली की सैर सय्यदपुर, तालुम्बा, तलवंडी, पेहोवा, कुरुक्षेत्र, पानीपत, दिल्ली, हरिद्वार, गोरख मत्ता, बनारस, गया, बंगाल, कामरूप (आसाम), सिलहट, ढाका और जगन्नाथ पूरी आदि स्थानो पर गये। पुरी से भोपाल, चंदेरी, आगरा और गुड़गांव होते हुए वे पंजाब लौट आए।(ii) बनारस, गोरखमाता, गया और आसाम की यात्रा - अब उन्होंने हिंदू, बौद्ध और नाथ पंथीयों के तीर्थ स्थानो का दौरा करने का फैसला किया। सबसे पहले वे बनारस गए। यहाँ उन्होंने मूर्ति पूजा के विषय पर चतुरदास नाम के एक पंडित से चर्चा की और उन्हें हराया। उन्होंने कहा कि ईश्वर का कोई सार नहीं है, वह सर्वव्यापी और अमूर्त है। गोरखमत्ता स्थान पर जाकर, उन्होंने योगियों को धूणी जमाने , शरीर पे राख मलने, कानों में छेद करने, मुद्रा को पहनने के चक्करों में नहीं उलझने और सतनाम के नाम का जाप करत हुए सदाचार का जीवन बतीत करते हुए भी परमात्मा को प्राप्त कर सकते हैं। उन्होंने कहा कि बेरागी वह है जिसका मन भगवान के नाम के साथ रंगा होता है(नानक नाम रते बैरागी)। इस स्थान का नाम गोरकखमत्ता से बदलकर नानकमत्ता कर दिया गया। गया की यात्रा के दौरान, गुरु जी ने बौद्धों के बीच प्रचलित कई झूठे रीती रिवाजों को तोड़ दिया। फिर इसके बाद वे कामरूप (आसाम), सिलहट और ढाका गए। कामरूप में, उन्होंने ने नूरशाही नामक जादूगरनी के सभी कुटिल चालों को नाकाम कर दिया। उनकी ढाका यात्रा पर कुछ इतिहासकार शक प्रकट करते हैं, जबकि अन्य मानते हैं कि उन्होंने नारायणदास, चंदन दास और फ़कीर शेख अहमद को प्रभावित किया।
(iii) जगन्नाथ पुरी की यात्रा और पंजाब लौटो वापसी - जगन्नाथ पुरी के मंदिर में उन्होंने भगवान जगन्नाथ विष्णु की आरती की और भक्तों को आरती का वास्तविक अर्थ समझाया, और कहा "मानव मन में निवास करता है, बाहर की आरती करने से क्या लाभ। दिखावे की पूजा व्यर्थ है।" पुजारियों द्वारा गुरु साहिब को आरती करते समय उसमें शामिल ना होने कारण पूछने पर उन्होंने सुंदर शब्दों में कहा (जो उनकी राग धनासरी में दिए गए हैं) कि पूरी प्रकृति भगवान की भक्ति में लगी हुई है। नीला आकाश आरती की थाली की तरह है, सूर्य और चंद्रमा उस आरती के दीप हैं, तारे मोती हैं, मलय पर्वत से (चंदन के पेड़ से टकरा के) आती सुगंधित हवा इस आरती की धूप के समान है, वनस्पति और फूल जोत आदि है। कहा जाता है कि यहां 1510 ई में उनकी चैतन्य प्रभु से मुलाकात हुई थी। जगन्नाथ पुरी से, गुरु साहिब भोपाल, चंदेरी, आगरा और गुड़गांव होते हुए पंजाब वापस आ गए।
दुसरी उदासी (1510-1515)
घरेलू जीवन का नेतृत्व करने के कुछ समय बाद, गुरु नानक देव जीअपनी दुसरी उदासी पर चल पडे। इस बार उन्होंने दक्षिण और श्रीलंका की यात्रा की। इस बार उन्होंने सिरसा, बीकानेर, जैसलमेर, जोधपुर, अजमेर, चित्तौड़, उज्जैन, अबू परबत, इंदौर, हैदराबाद, गोलकुंडा, बीदर, रामेश्वर और श्रीलंका की यात्रा की। उन्होंने राजस्थान में हिंदुओं और जैनियों के धर्म स्थानो पर भी गयें। अजमेर के निकट 'पुष्कर' (ब्रह्मा का मंदिर) के स्थान पर हिंदुओं को ईश्वर की महिमा और नाम का जाप करने के लिए प्रेरित किया। आबू पर्वत के सुंदर जैन मंदिर में, वह जैन संतों को मिले।
दक्षिण में, उन्होंने बीदर के स्थान पर उन्होंने तिल का प्रसाद कनफटे जोगियों के बीच वांट कर रिद्धि सिद्धि को चुनौती दी। वहा पर आज गुरुद्वारा तिल साहिब भी स्थापित किया गया है। वह रामेश्वरम के माध्यम से श्रीलंका पहुंचे। वहां का शासक शिवनाथ उनसे बहुत प्रभावित हुआ और अपने परिवार के साथ उनके सिख बन गए। अनुराधापुर में एक शिलालेख गुरु जी की श्रीलंका यात्रा को साबित करता है, हालांकि ट्रम्प (Trumpp) और मैकलोड (Mc Leod) इसको सच नहीं मानते। कोचीन, गुजरात, द्वारका, सिंध, बहावलपुर और मुल्तान से गुरु पंजाब वापस आ गए। इस यात्रा में उन्के लगभग 5 साल का समय लगा।
तीसरी उदासी (1515-17)
अपनी तीसरी उडासी में, गुरु जी ने भारत के उत्तरी भागों की यात्रा की। उन्होंने कांगड़ा, चंबा, मंडी नादौन, बिलासपुर, कश्मीर की घाटी, कैलाश पर्वत और मान सरोवर झील पर गए। शायद वह तिब्बत भी गए। लद्दाख और जम्मू से होते हुए वह पंजाब लौट आए। पहाड़ी प्रदेश में उन्होंने ज्वालामुखी जैसे कई हिंदू तीर्थ स्थानों की यात्रा की। वह मानसरोवर झील और तिब्बत भी गए और यहां तक कि इन पहाड़ी हिस्सों में वे कई योगियों से मिले जो अपने शरीर पर अत्याचार करके और हठ योग कर रहे थे। उनके साथ उनकी बातचीत 'सिद्ध गोष्टा' में दर्ज है। उन्होंने जोगियों से कहा कि एक गुणवान व्यक्ति गृहस्थ जीवन जीते हुए भी भगवान को प्राप्त कर सकता है, इसलिए घर छोड़ने और जंगल में गहन तपस्या करने का कोई लाभ नहीं है। उन्होंने अमरनाथ, पहलगांव, मटन, अनंतनाग, श्रीनगर और बारामूला की यात्रा की। मटन के स्थान पर उन्होंने एक विद्वान पंडित ब्रह्मदास के साथ एक सफलता पुर्ण शास्त्रार्थ किया। उस ब्राह्मण के पास बहुत धर्म ग्रंथ थे। गुरु साहिब ने उनसे कहा कि कोई भगवान को केवल कुछ ग्रन्थों को याद करके या उनकी पूजा करके नहीं पा सकता है। उनको सिर्फ नाम सिमरन करने और सदाचारी जीवन जीने से ही उसे प्राप्त किया जा सकता है।
पंजा साहिब - कश्मीर से वापस आने पर, वह हसन अब्दाल नामक स्थान पर कुछ समय के लिए रुके थे। यहां एक मुस्लिम फकीर वली कंधारी ने उन्हें नीचा दिखाने के लिए उनके उपर एक भारी चट्टान फेंक दी। गुरु जी ने अपने हाथ के पंजे से चट्टान को रोका। गुरु के हाथ के पंजे के निशान अभी भी उस पर हैं। यह स्थान अब श्री पांजा साहिब के नाम से जाना जाता है और सिखों के लिए एक प्रमुख तीर्थ स्थान है।
चौथी उदासी (1517-21)
इस बार गुरु मक्का, मदीना और बगदाद गए। इस यात्रा के दौरान, उन्हें हाजी की तरह कपड़े पहनाए गए थे। पाकपट्टन में उन्होंने शेख फरीद की समाधि के दर्शन किये और मुल्तान में उन्होंने सूफीमत के सेहरावर्दी वंश के सूफी संतों से मुलाकात की। वह एक जहाज द्वारा मक्का और मदीना की यात्रा पर गये। मक्का (हज़रत मुहम्मद के जन्मस्थान) में जब वह काबे की ओर अपने पैर रखकर सो रहे थे, तो एक कट्टर मुस्लिम काज़ी रुक्नुद्दीन को उन पर बहुत गुस्सा आया। उन्होंने कहा कि आप अल्लाह के घर - काबा की ओर अपने पैरों के साथ क्यों सो रहे हैं, तो गुरु जी ने निम्रतापूर्वक उत्तर दिया कि मेरे पैर उस तरफ कर दो, जहां काबा नहीं है। उनका मतलब यह था कि अल्लाह या ईश्वर सर्वव्यापी है। जहां भी आप पैर रखकर सोएंगे, भगवान उसी तरफ होंगे। इसके बाद उन्होंने मदीना और बगदाद की यात्रा की। बगदाद उन दिनों में मुस्लिमों के धार्मिक नेता खलीफा का मुख्य केंद्र था। यहा उनकी मुलाकात शेख बहलोल से हुई जिसको उन्होंने बहुत प्रभावित किया। शेख बहलोल ने उनकी याद में एक स्मारक भवन बनवाया। वहां अरबी में एक लेख लिखा है, जिसमें कहा गया है, "यहाँ एक हिंदू गुरु नानक ने फ़कीर बहलोल से बातचीत की। जब से गुरु ने ईरान छोड़ा है, तब से लेकर इसकी 60 की गिणती तक फकीर की आत्मा गुरु के वचन पर ऐसे बैठी रही, जैसे कोई भौंरा सुबह खिले होए मधु भरे गुलाब पर बैठता है। ईरान, काबुल और पेशावर होते हुए गुरु साहिब सैयदपुर (ऐमनाबाद) आ आए। जब वे वहां पर डेरा जमाए हुए थे, तो बाबर ने कस्बे पर हमला कर दिया। लोगों के कुछ विरोधों के कारण, उन्होंने अमीनाबाद के लोगों पर गंभीर अत्याचार करने का आदेश दिया। सैकड़ों लोगों को कैदी लिया गया। इन कैदियों में गुरु नानक देव जी भी थे, लेकिन गुरु जी के व्यक्तित्व, त्यागमई जीवन और शिक्षाओं से प्रभावित होकर, बाबर ने उन्हें और उनके कहने पर सैकड़ों अन्य कैदियों को मुक्त कर दिया, उनसे माफी मांगी और उन्हें अपने राज्य के लिए वरदान भी मांगा। गुरु जी ने बाबर बानी में बाबर के इस अत्याचारपूर्ण हमले की कड़ी निंदा की और इसे 'पापों का जंज' का नाम दिया।पाँचवी उदासी (1521-22)
चौथी उडसी के बाद, गुरु साहिब करतारपुर में रह कर ग्रहसथ जीवन बतीत करने लगे। इस बार वह बाहर ना जाकर पंजाब के पास कुछ इलाकों की यात्रा की। उन्होंने पाकपट्टन, दीपालपुर, सियालकोट, कसूर, लाहौर और झंग आदि स्थानो पर गये। कई इतिहासकार इस यात्रा को चौथी उदासी का ही भाग मानते हैं और पाँचवीं उदासी का अलग से वर्णन नहीं करते हैं।
करतारपुर में, उन्होंने संगत और पंगत (एक पंक्ति में बैठे और अमीर और गरीब, उच्च और लोगों द्वारा लंगर खाने) की परंपरा स्थापित की। वह प्रतिदिन सुबह और शाम संगतो को धार्मिक प्रवचन देते थे। ज्योति ज्योत समाने से पहले उन्होंने अपने एक सच्चे भक्त भाई लहिना को उत्तराधिकारी नियुक्त किया और इस तरह गुरु परंपरा को जन्म दिया।
उदासीयों का महत्व
गुरु नानक जी ने लंबी यात्राओं पर लगभग 20-25 साल बिताए। उन दिनों परिवहन के साधन बहुत कठिन थे। उनकी तुलना डॉ सुरिंदर सिंह कोहली द्वारा दुनिया के महानतम यात्रियों - फाहियान, हियूनसांग, अलबेरूनी, मार्को पेलो, इब्न बतूता, कोलंबस, वास्कोडिगामा और डेविड लिविंगस्टोन से की जाती है। गुरु ने इनमें से अधिकांश यात्रा पैदल ही की है। धर्म के वास्तविक स्वरूप को लोगों तक पहुँचाने के लिए उन्होंने कितना प्रयास, इसका अंदाजा लंबी यात्राओं से आसानी से लगाया जा सकता है। जहाँ उनका मिशन महान था, उनके प्रयास भी महान थे।
यह एक साहसी, जोखिम भरा और कड़ी मेहनत का काम था। इसके साथ, उनके विचार आम जनता तक दूर-दूर तक पहुँच गए। अपने जीवनकाल के दौरान, सिख धर्म एक जीवित, चलती संस्था बन गया। उन्होंने अनगिनत लोगों के अंधविश्वासों, वहमो और झूठे पाखंडों को तोड़ने और उन्हें ईश्वर प्राप्ति के सच्चे मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया। उनकी इन यात्रियों के बारे में यह ठीक ही कहा गया है कि उन्होंने पंजाब के हिंदुओं को पहले से बेहतर हालत में छोड़ कर गये।
दोस्तों आज इस पोस्ट में हमनें आपको गुरु नानक देव जी की उदासियाँ के बारे में जानकारी दी है। उम्मीद है कि आपको यह पोस्ट पसंद आई होगी। अगर आपका कोई सवाल है तो आप नीचे कमेंट बाक्स में पुछ सकते हो।
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