गुरु तेग बहादुर जी की यात्राएं

अमृतसर में मसंदों के बुरे व्यवहार से गुरु तेग बहादुर जी को बहुत निराशा हुई थी। उन्होंने यह महसूस किया कि आंतरिक और बाहरी दोनों तरह से सिख धर्म को बहुत ख़तरा है। इस लिए गुरु साहिब ने महसूस किया कि केवल एक गुफा में बैठकर नाम का सिमरन करने से सिख धर्म को संरक्षित नहीं किया जा सकता है।

उन्हें भिन्न स्थानों पर जाकर सिख संगत को इन खतरों से ज्ञात कराना होगा और उनका अध्यात्मिकता मार्ग दर्शन करना होगा। मसंद, प्रिथीएँ की औलाद, धीर मल्ल और राम राय की बुरी चालों को असफल बनाने के लिए धार्मिक यात्राओं का विशेष महत्व होगा। गुरु साहिब ने पंजाब और भारत के अन्य हिस्सों में धर्म प्रचार के लिए भी यात्राएं करने का फैसला किया।

गुरु तेग बहादुर जी की यात्राएं

पंजाब के विभिन्न भागों की यात्रा

गुरु तेग बहादुर जी अमृतसर से वाल्हा और घुकेवली गई। घुकेवली की प्राकृतिक सुंदरता देखकर वह बहुत खुश हुए, उस स्थान का नाम उन्होंने “गुरु का बाग” रख दिया। वहां से वे तरनतारन की तरफ़ चले गए और वहां से वो खडूर साहिब, गोइंदवाल और महत्त्वपूर्ण तीर्थ-स्थान की यात्रा करते हुए पंजाब के मालवा प्रदेश में दाखिल हुए। उन्होंने तलवंडी साबो, मौर मंडी, महिसार खाना, धमधान आदि स्थानों का दौरा किया।

इस के बाद 1665 ई. में वह कीरतपुर (जिस स्थान की स्थापना गुरु हरगोबिंद साहिब जी ने की थी) में पहुंचा गई। पास में बिलासपुर की रानी से 500 रुपये देकर जमीन का एक टुकड़ा लेकर, वहां उन्होंने “चक्क नानकी” (नानकी जी उनकी माता का नाम था) की स्थापना की थी। इस को (मखोवाल) के नाम से भी याद किया जाता था। इस जगह पर बाद में आनंदपुर साहिब का प्रसिद्ध ऐतिहासिक शहर बस गया।

पुरवी भारत की यात्रा (1666-70 ई.)

1666 ई. से लेकर 1670 ई. तक लगभग 4 वर्षों के लिए गुरु साहिब उत्तर प्रदेश और बिहार से हुए, वे पूर्वी भारत के लिए रवाना हुए। गुरु साहिब को ढाका में भाई बालाकी दास, भाई हुलास दास और पटना साहिब से भाई दरबारी और चैन सुख आदि प्रमुख सिखों द्वारा बार-बार संदेश भेजें गई थे जिसमें उन्होंने बिनती की कि वह उन प्रदेशों की यात्रा करके सिख संगत को प्रोत्साहित करें।

उनकी यात्राओं में उनकी माता नानकी जी पत्नी गुजरी जी और महान भक्त मति दास, भाई सती दास और भाई दयाला जी आदि भी उनके साथ गए। गुरु साहिब रोपड़, बनूर, राजपुरा, सैफाबाद, धमधान से दिल्ली पहुंचे। धमधान की जगह पर उनका उपदेश सुनने के लिए लोग हजारों की संख्या में आने लगें। इस जगह पर अचानक औरंगजेब के आदेश पर उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया और दिल्ली में मुगल बादशाह के सामने पेश किया गया। औरंगजेब उन्हें मौत की सजा देना चाहता था, लेकिन जयपुर (आमेर) के राजा राम सिंह ने गुरु साहिब के त्याग और साधु-संत स्वभाव के बारे में उसे भरोसा दिलाया और उनके संबंध में अपनी ज़िम्मेदारी ली।

गुरु साहिब एक महीने तक राजा राम सिंह के साथ रहने के बाद पूर्व में चले गए। उन्होंने मथुरा, ब्रिंदाबन, आगरा, कानपुर, प्रयाग, बनारस आदि की यात्रा की। हिंदूओं के इन पवित्र स्थानों की अपनी यात्रा के दौरान उन्होंने लोगों में प्रचलित कई अंधविश्वासों, पाखंडों और कर्मकांडों का विरोध किया और उन्हें एक निराकार ईश्वर के नाम का ध्यान करने का निर्देश दिया। इसके बाद गुरु साहिब बिहार में प्रवेश गए। उन्होंने साहिसराम, बोधगया, पटना साहिब और मुघेर आदि स्थानों की यात्रा भी की।

अपनी माँ और पत्नी को पटना में सिखों की देखरेख में छोड़कर, गुरु साहिब ढाका चले गए। ढाका में उन दिनों बहुत गिनती में सिख रहते थे। भाई बालाकी और भाई नथा जी ने उनका हार्दिक स्वागत किया। यहीं पर गुरु साहिब को पटना में जन्मे अपने पुत्र श्री गोबिंद राय के जन्म की सुचना मिली। ढाका में लगभग एक वर्ष (1667-68) तक रहने के बाद गुरु साहिब पूर्व की ओर चले गए। कहते है कि इस बीच में उन्होंने सिलहट और चटगांव का भी दौरा किया। इसके बाद वे राजा राम सिंह के साथ असम चले गए।

राजा राम सिंह असम के शासक चक्रध्वज के खिलाफ औरंगज़ेब के हुक्म के मुताबिक युद्ध लड़ने गया था। गुरु साहिब ने ब्रह्म पुत्र नदी को पार करके धूबरी में डेरा लगाया। असम के लोग बड़ी संख्या में उनके दर्शनों के लिए आने लगें। गुरु साहिब की कोशिशों से राजा राम सिंह और अहोम के शासक चक्रध्वज के बीच एक समझौता हुआ। इस क्षेत्र में गुरु साहिब की यात्रा के बारे में बी.एस. आनंद लिखते है: “गुरु साहिब की यात्रा रेगिस्तान में अचानक फुट पड़ने वाले ताज़े पानी के फव्वारे की तरह थी।”

इसके बाद गुरु महाराज बिहार और उत्तर प्रदेश के विभिन्न स्थानों से होते हुए दिल्ली पहुँचे। वहां से वह रोहतक, कुरुक्षेत्र, पिहोवा की यात्रा करके लखनौर पहुंच गए। यहां पटना से उनका परिवार भी आ गया था। वहां से वह अपने परिवार के साथ बकाला होते हुए चक्क नानकी (मंखोवाल) पहुंच गए।

मालवा और बांगर की यात्रा (1673-74)

1673 ई. में गुरु तेग बहादुर जी ने पंजाब के मालवा (सतलुज और घग्गर नदियों के बीच का क्षेत्र) और हरियाणा के बांगर (घग्गर और जमना नदियों के बीच का क्षेत्र) प्रदेश के विभिन्न स्थानों की यात्राएं की। इन यात्राओं के दौरान उनकी पत्नी गुजरी और बच्चा श्री गोबिंद राय भी उनके साथ ही थे। इन दिनों लोगों में औरंगज़ेब की धार्मिक कट्टरता की नीति का काफी जोर था। लोग भयभीत थे।

गुरु साहिब ने उपदेश दिया कि न किसी को डराओं और न किसी से डरों। ऐसा उपदेश देकर उन्होंने हिंदुओं का मनोबल बढ़ाया। वे पटियाला के करीब के गाँव- मुलोवर, शेख, ढिलवां और बठिंडा ज़िले के जोगा, भीखी, खियाला, तलवंडी, बठिंडा और धमधान आदि स्थानों पर गए। उन्होंने विभिन्न स्थानों पर दीवाना में बड़ी संख्या में हज़ार सिख संगत को संबोधित किया और उन्हें धर्म के वास्तविक रूप का उपदेश दिया। उन्होंने लोगों को कहा कि कायरता और डर छोड़कर निडरता से अपने धर्म का पालन करें।

उन्होंने इन यात्राओं के दौरान विभिन्न स्थानों पर कुएँ और तालाब खोदवाए। उनकी इन यात्राओं से मालवा और बांगर प्रदेशों में सिख धर्म की लोकप्रियता बहुत बढ़ गई और इसकी खबर मुगल बादशाह औरंगजेब तक पहुंची गई। कुछ इतिहासकारों का मानना ​​है कि ये यात्रा करके गुरु की प्रसिद्धि और सिख धर्म का प्रसार और प्रचार हुआ, वह उनकी शहादत का एक कारण बन गया, क्योंकि कट्टरपंथी औरंगज़ेब इसे सहन नहीं कर सकता था।

गुरु साहिब की यात्राओं के महत्व के बारे में, हरबंस सिंह अपनी पुस्तक 'गुरु तेगबहादुर' में लिखते है, ''गुरु तेग बहादुर जी की यात्रा ने देश में एक तूफ़ान ला दिया। यह न तो पहले जैसा देश रहा और न ही लोग। उनमें एक नई जागृति आ चुकी थी।”

दोस्तों आज इस पोस्ट में हमनें आपको गुरु तेग बहादुर जी की यात्रायों के बारे में बताया है। उम्मीद है कि आपको यह पोस्ट पसंद आई होगी। अगर आपका कोई सवाल है तो आप नीचे कमेंट बाक्स में पुछ सकते हो।

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