भारतीय संविधान की प्रमुख विशेषताएं

भारतीय संविधान का निर्माण - भारत के संविधान का निर्माण संविधान सभा द्वारा किया गया था, जिसे आजादी से पहले एक ब्रिटिश योजना के अनुसार स्थापित किया गया था। इस संविधान सभा में ब्रिटिश भारत के प्रांतों और भारत के राज्यों के प्रतिनिधि शामिल थे। इस संविधान सभा के प्रधान डॉ राजिंदर प्रसाद थे, जिन्हें संविधान सभा के सदस्यों द्वारा चुना गया था। ब्रिटिश योजना के अनुसार स्थापित, यह संस्था सीधे लोगों द्वारा नहीं चुनी गयी थी, बल्कि अप्रत्यक्ष रूप से जनप्रतिनिधियों द्वारा चुनी गयी थी।  स्वतंत्रता से पहले, संविधान सभा अपनी इच्छा के अनुसार संविधान का निर्माण करने के लिए स्वतंत्र नहीं थी, लेकिन 15 अगस्त, 1947 के बाद यह संस्था संंविधान तैयार करने के लिए संप्रभुता संपंन हो गई। इस संविधान सभा ने डॉ बी आर अंबेडकर की अगवाई में संविधान तैयार करने के लिए एक मसौदा समिति (Drafting Committe) का गठन किया था। मसौदा समिति द्वारा प्रस्तुत संविधान पर संविधान सभा द्वारा बहस की गई और बहस के बाद, यह संविधान को 26 नवंबर, 1949 को भारत की संविधान सभा द्वारा अपनाया गया था। लेकिन संविधान सभा ने 26 जनवरी 1950 से स्वतंत्र भारत के संविधान को लागू करने का फैसला किया। उन्होंने 26 जनवरी को इस लिए चुना क्योंकि 1930 से भारतीय हर साल 26 जनवरी को स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाते रहे हैं। 26 जनवरी को उस ऐतिहासिक दिन की याद को बनाए रखने के लिए चुना गया था।

भारतीय संविधान की मुख्य विशेषताएं

संविधान की प्रमुख विशेषताएं

भारतीय संविधान की प्रमुख विशेषताएं इस प्रकार हैं:-

1. लिखती और विस्तृत संविधान - भारत का संविधान एक लिखित संविधान है, जिसमें कुल 395 अनुच्छेद और 12 अनुसूचियां हैं। संविधानिक सोध के द्वारा संविधान में चाहे अनेक अनुच्छेद खारिज किए गए हैं और अनेक नयें  अनुच्छेद अंकित किए गए हैं परंतु अनुच्छेदों की क्रमबद्धता उसी तरह रखी गई है और अनुच्छेद की गणना में भी कोई परिवर्तन नहीं किया गया है। भारत का संविधान 22 भागों में विभाजित है। भारत का संविधान दुनिया में सबसे विस्तृत संविधान है। भारतीय संविधान का विस्तृत होने का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान में 7, स्विट्जरलैंड के संविधान में 123 और जापान के संविधान में 103 अनुच्छेद है जबकि भारत के संविधान में अनुच्छेदों की संख्या 395 है।

2. संविधान की शुरुआत से पहले प्रस्तावना - संविधान के पहले लेख से पहले प्रस्तावना अंकित की गयी है। हालांकि कुछ लोग कहते हैं कि प्रस्तावना संविधान का हिस्सा नहीं है। लेकिन असल में सच्चाई यह है कि भारतीय संसद ने और भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने प्रस्तावना को संविधान का एक हिस्सा माना है। प्रस्तावना में भी तबदीली उस विधि द्वारा ही कर सकती है जिस विधि द्वारा संसद में अन्य अनुच्छेदों में तबदीली करती है।

3. कई साधनों से लिया अनोखा संविधान - हमारे संविधान निर्माता कोई मूलिक दस्तावेज बनाने के इच्छुक नहीं थे, लेकिन उनका एकमात्र उद्देश्य था एक ऐसा संविधान बनाना था जो व्यवहार रुप से एक आदर्श संविधान साबित हो। इसके लिए, संविधान के निर्माताओं ने भारतीय संविधान में दुनिया के कई देशों के संविधानों के अच्छे सिद्धांतों को शामिल करने में संकोच नहीं किया है, यही कारण है कि भारतीय संविधान को कई स्रोतों से लिया एक अनोखा संविधान है। कुछ मुख्य सिधांत जो विदेशी संविधानों से लिए गए है। उनका संक्षिप्त विवरण नीचे दिया गया है -

(i) संसदीय प्रणाली ब्रिटिश प्रणाली की देन है।

(ii) हमारे मौलिक अधिकारों और सर्वोच्च न्यायालय के कार्ज प्रणाली पर संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान का प्रत्ख प्रभाव है।

(iii) राज्य की नीति के निरदेशक सिद्धांत आयरलैंड के संविधान से लिए गए हैं।

(iv) कनाडा के संघीय संविधान का भारतीय संघीय संगठन पर गहरा प्रभाव है।

(v) दक्षिण अफ्रीकी संविधान में से संविधान में संशोधन करने की प्रक्रिया और राज्य सभा के सदस्यों के चुनाव की प्रक्रिया पर प्रत्ख प्रभाव है।

(vi) भारत के राष्ट्रपति के आपातकालीन शक्तियों जर्मनी के वाईमर (Weimer) संविधान के अनुच्छेद 48 का एक अभिन्न अंग हैं।

(vii) उपरोक्त प्रभावों के अलावा, भारत सरकार द्वारा भारत के संविधान पर 1935 के अधिनियम का गहरा प्रभाव स्पष्ट प्रतीत होता है।

4. मौलिक अधिकार - भारत के संविधान का भाग III में, अनुच्छेद 14 से 32 के तहत भारतीयों को मौलिक अधिकार प्रदान किये गए है। इन अधिकारों को छह श्रेणियों में बांटा गया है। ये अधिकार इस प्रकार हैं -

(i) समानता का अधिकार (Rights to Equality) - अनुच्छेद 14 से 18।

(ii) स्वतंत्रता का अधिकार (Rights to Freedom) - अनुच्छेद 19 से 22।

नवंबर, 2002 में संसद द्वारा पास की और दिसंबर, 2002 में लिए राष्ट्रपति द्वारा प्रवानित 86 वीं सोध द्वारा शिक्षा के अधिकार के रुप में अनुच्छेद 21A के तहत एक मौलिक अधिकार में अंकित किया गया था। शिक्षा का अधिकार 'स्वतंत्रता का अधिकार' वाले भाग में एक नए अनुच्छेद 21A के द्वारा अंकित किया है।

(iii) शोषण के खिलाफ अधिकार (Rights Against Exploitation) - अनुच्छेद 23 और 24।

(iv) धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार (Right to Religious Freedom) - अनुच्छेद 25 से 28।

(v) सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकार (Cultural and Educational Rights) - अनुच्छेद 29 से 30।

(vi) संवैधानिक उपचारों का अधिकार (Right to Constitutional Remedies)- अनुच्छेद 32।

5. संपत्ति का अधिकार एक साधारण अधिकार - भारतीय नागरिकों का संपत्ति का अधिकार 19 जून, 1979 तक एक मौलिक अधिकार था। लेकिन उस तारीख के बाद से नागरिकों का यह अधिकार एक सामान्य अधिकार बन गया है यानी कानूनी अधिकार बन गया, क्योंकि 44 वें संशोधन द्वारा संपत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकार की सूची में से निकालकर इस अधिकार को संविधान के अनुच्छेद 300-A में अंकित करके एक कानूनी अधिकार बनाया गया है और यह प्रावधान किया गया है कि किसी भी व्यक्ति को कानून की शक्ति के बिना उसकी संपत्ति से वंचित नहीं किया जा सकता है।

6. मौलिक कर्तव्य - भारतीय संविधान में निम्नलिखित 11 मौलिक कर्तव्य भारत के संविधान में अंकित हैं -

(i) संविधान की पालना करना और इसके आदर्शों, इसकी संस्थाओं, राष्ट्रीय झंडे और राष्ट्रीय का सम्मान करना।

(ii) उन सभी आदर्शों का आदर और पालना करनी, जिन शुभ आदर्शों ने स्वतंत्रता के लिए हमारे राष्ट्रीय संघर्ष को प्रेरित किया।

(iii) भारत की संप्रभुता, एकता और अखंडता का समर्थन और रक्षा करनी।

(iv) देश की रक्षा करना और जरूरत पड़ने पर राष्ट्रीय सेवा करना

(v) धार्मिक, भाषाई, क्षेत्रीय और इसी तरह के मतभेदों से ऊपर उठकर, भारत के सभी लोगों के बीच समान भाईचारे की भावना विकसित करने और महिलाओं की गरिमा का अपमान करने वाली प्रथाओं को त्यागना।

(vi) संयुक्त संस्कृति की समृद्ध विरासत का सम्मान करना और उसे कायम रखना।

(vii) वनों, झीलों, नदियों और वन्य जीवन, प्राकृतिक पर्यावरण की रक्षा और सुधार करना और जानवरों के प्रति दया दिखाना।

(viii) वैज्ञानिक स्वभाव, मानवतावाद और जांच करन के सुधार की भावना विकसित करना।

(ix) सार्वजनिक संपत्ति की रक्षा करना और हिंसा का त्याग करना।

(x) व्यक्तिगत और सामूहिक गतिविधि के हर क्षेत्र में उत्कृष्टता के लिए प्रयास करना ताकि राष्ट्र उपलब्धि के उच्च स्तर तक बढ़ता रहे।

(xi) दिसंबर, 2002 में लागू की गयी 86वीं संविधानिक संशोधन द्वारा नागरिकों के एक और मौलिक कर्तव्य को संविधान में शामिल किया गया है। इस संवैधानिक संशोधन द्वारा यह वयवस्था की गयी है कि बच्चों के माता-पिता या अभिभावकों का यह मौलिक कर्तव्य है कि वे अपने बच्चों को ऐसी परिस्थितियों में अवसर प्रदान करें, जिससे बच्चे शिक्षा प्राप्त कर सके। परिणामस्वरूप, मौलिक कर्तव्यों की कुल संख्या 11 हो गई।

7. राज्य की नीति के निर्देशक सिद्धांत - भारतीय संविधान के भाग IV में अनुच्छेद 36 से 51 तक राज्य की नीति के निर्देशक सिद्धांतों का वर्णन किया गया हैं। राज्य की नीति के यह मूल सिद्धांत शासन की अगवाई करन और सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र की स्थापना करने के लिए संविधान में अंकित किये गये है। 

ये निर्देशक सिद्धांत न्याय योग नहीं हैं। इसका मतलब यह है कि सिद्धांतों को लागू करने के लिए किसी भी अदालत की शरन नहीं ली जा सकती। यदि कोई सरकार उन्हें लागू नहीं करती है, तो इसके खिलाफ किसी भी अदालत में कोई कार्रवाई नहीं की जा सकती है।

8. प्रभुसत्ता संपन्न समाजवादी धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य - प्रस्तावना में भारत को एक संप्रभुताशाली समाजवादी धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य घोषित किया गया है।

(i) भारत एक प्रभुताशाली राज्य है क्योंकि यह किसी भी विदेशी शक्ति के अधीन नहीं है और अपनी आंतरिक और बाहरी नीति बनाने के लिए पूरी तरह से स्वतंत्र है।

(ii) भारत एक धर्म निरपक्ष राज्य है क्योंकि भारतीय संविधान में किसी विशेष धर्म को राज धर्म की मान्यता नहीं दी गई है और सभी भारतीयों को धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार दिया गया है।

(iii) भारत एक लोकतांत्रिक राज्य है क्योंकि संविधान ने बालग मताधिकार के आधार पर आवधिक चुनावों के लिए प्रावधान किया है। 18 वर्ष से अधिक आयु के सभी व्यक्तियों को मतदान का अधिकार है। 25 वर्ष या उससे अधिक आयु के प्रत्येक व्यक्ति को लोकसभा और राज्य विधानसभा चुनाव लड़ने का अधिकार दिया गया है।  इस आधार पर, हमारे देश में अब तक 15 आम चुनाव हुए हैं। 15वीं लोकसभा के चुनाव अप्रैल-मई 2009 में हुए थे और 16वीं लोकसभा के चुनाव मई 2014 में हुए थे। इसके इलावा संविधान में मौलिक अधिकारों का प्रावधान भी भारतीय संविधान के लोकतांत्रिक स्वरूप का प्रतीक है।

(iv) भारत एक गणतंत्र है क्योंकि इसका राष्ट्रपति अप्रत्यक्ष रूप से जनप्रतिनिधियों द्वारा चुना जाता है और उसकी शक्तियों का स्रोत भारतीय लोगों द्वारा बनाया गया सर्वोच्च संविधान है।

(v) हालाँकि भारत को प्रस्तावना में एक समाजवादी गणराज्य कहा जाता है, यह वास्तव में एक समाजवादी गणराज्य नहीं है क्योंकि भारतीय संविधान में समाजवाद के महत्वपूर्ण सिद्धांत प्रदान नहीं किए गए हैं।

9. संसदीय शासन प्रणाली - संविधान भारत में संसदीय शासन प्रणाली की व्यवस्था की गयी है। यह तथ्य संविधान के निम्नलिखित व्यवस्थाओं से स्पष्ट है।

(i) संविधान के नाममात्र के कार्यकारी और असली कार्यकारी दोनों की व्यवस्था की गयी है। राष्ट्रपति भारत की नाममात्र की कार्यकारी है और प्रधान मंत्री की अध्यक्षता वाली मंत्रिपरिषद असली कार्यकारी है। राष्ट्रपति अपने मंत्रिमंडल की सलाह पर कार्य करता है। भारतीय संविधान में स्पष्ट व्यवस्था है कि राष्ट्रपति के लिए मंत्री परिषद की सलाह को स्वीकार करना महत्वपूर्ण है।

(ii) मंत्रिपरिषद अपनी नीतियों और कार्यों के लिए संसद के निचले सदन, अर्थात लोकसभा के प्रति जवाबदेह है।

(iii)  मंत्री परिषद अपनी पदवी पर उस समय तक कायम रह सकता है जब तक उसको लोकसभा का विश्वास प्राप्त हो।

(iv) लोकसभा अविश्वास प्रस्ताव पारित करके, मंत्रिपरिषद को निर्धारित समय से पहले इस्तीफा देने के लिए मजबूर कर सकती है। ऐसी स्थितियाँ सरकार की संसदीय प्रणाली का साकार रूप हैं।

10. कठोर और लचीला संविधान - सिद्धांतक रूप में, भारतीय संविधान एक कठोर है। सिद्धांतक तौर पर एक कठोर संविधान वह है जिसमें संशोधन के लिए एक विशेष प्रक्रिया निर्धारित की जाती है। इस संबंध में, भारत का संविधान एक कठोर संविधान है क्योंकि संविधान का अनुच्छेद 368 एक विशेष संवैधानिक संशोधन प्रक्रिया निर्धारित करता है।  इस संशोधन के माध्यम से अब तक 94 संवैधानिक संशोधन किए गए हैं। एक कठोर संविधान की एक और विशेषता यह है कि यह आम कानून का निरमाण करने के लिए एक अलग प्रक्रिया निर्धारित करता है। इस संबंध में भी, भारतीय संविधान कठोर संविधान है क्योंकि भारत का संविधान, संविधान में संशोधन के लिए एक अलग प्रक्रिया और आम कानूनों को लागू करने के लिए एक अलग प्रक्रिया निर्धारित करता है।

संविधान में संशोधन के उद्देश्य से भारत के संविधान को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है।

(i) एक भाग वह है जिसे संसद द्वारा केवल एक साधारण बहुमत से बदला जा सकता है। यह भाग संविधान के लचीलेपन को बताया है।

(ii) दूसरा भाग वह है जिसे संसद के दोनों सदनों में कुल संख्या का स्पष्ट बहुमत और हाजर मतदाताओं का दो तिहाई बहुमत पक्ष में होना आवश्यक है। यह भाग संविधान की कठोरता का स्पष्ट प्रमाण है।

(iii) तीसरा भाग वह है, जिसे बदलने के लिए संसद के दोनों सदनों में कुल सदस्यों की कुल संख्या का स्पष्ट बहुमत और हाजर और मतदान करने वाले दो-तिहाई बहुमत के अलावा कम से कम आधे राज्य विधान मंडलों के समर्थन भी जरूरी होती है। यह भाग संविधान के अति कठोर होने का सबूत है।  इस प्रकार यह स्पष्ट है कि भारतीय संविधान न तो बहुत कठोर है और न ही अधिक लचीला है, बल्कि कठोरता और लचीलेपन का मिश्रण है।

11. संघीय प्रणाली - भारतीय संविधान में 'संघ' (Federation) शब्द का उपयोग नहीं किया गया है। पहले अनुच्छेद में, भारत को 'राज्यों का संग्रह' (Union of States) घोषित किया गया है। हालांकि, कुछ लेखकों की राय है कि भारत का संविधान संघ सरकार की स्थापना करता है क्योंकि इसमें सभी तत्व शामिल हैं जो संघीय सरकार में मौजूद होने जरूरी है। संविधान ने दोहरी शासन प्रणाली की व्यवस्था की है।  भारतीय संविधान में केंद्रीय सरकार के अलावा 28 राज्यों की व्यवस्था की गई है। संघात्मक प्रणाली के सिद्धांतों के अनुसार, संविधान द्वारा केंद्र और राज्यों के बीच शक्तियों को विभाजित किया है।  इसके अलावा संविधान की सर्वोच्चता, लिखती और कठोर संविधान, स्वतंत्र न्यायपालिका और दो सदनी विधान मंडल की होंद भी भारतीय संविधान की संघात्मक विशेषताएं हैं।

12. एकात्मक विशेषताएं - भारतीय संविधान में कुछ एकात्मक तत्व भी हैं। उदाहरण के लिए, शक्तियों का बाँट केंद्र को बहुत शक्तिशाली बनाती है। महत्वपूर्ण विषय संघ सूची में अंकित हैं और इसके अलावा बची शक्तियां भी केंद्र को दी गई हैं। एकहिरी नागरिकता, एकीहिरी संगठित न्यायपालिका, राष्ट्रपति की आपातकालीन शक्तियाँ आदि भी एकतमकता के प्रतीक हैं।

13. धर्मनिरपेक्ष राज्य - संविधान की प्रस्तावना में, भारत को धर्मनिरपेक्ष गणराज्य घोषित किया गया है। संविधान में इस तरह के प्रावधान किए गए हैं जो एक धर्मनिरपेक्ष राज्य की आवश्यक विशेषताएं हैं। संविधान किसी विशेष धर्म को राज्य धर्म का दर्जा नहीं दिया है और सभी धर्मों के लोगों के साथ समान माना करता है।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 से 28 धार्मिक स्वतंत्रता प्रदान करते हैं। हर कोई अपनी पसंद के किसी भी धर्म को अपना और उसका प्रचार करने के लिए स्वतंत्र है। धार्मिक संस्थानों को धार्मिक प्रचार के लिए संपत्ति आदि रखने और उसका प्रबंधन करने की स्वतंत्रता है। सरकारी पदों पर नियुक्तियाँ के समय किसी नागरिक के साथ धर्म के आधार पर कोई मतभेद नहीं किया जा सकता है। धर्म एक व्यक्तिगत मामला है और राज्य इसमें दखलंदाजी करने से संकोच करता है। भारत की धर्मनिरपेक्षता व्यावहारिक रूप से स्पष्ट प्रतीत होती है। भारत के राष्ट्रपति के रूप में दो मुसलमान, लगातार 10 वर्षों तक प्रधान मंत्री के रूप में एक सिख, भारतीय थल सेना के प्रमुख के रूप में दो सिख और एक इतालवी महिला का कांग्रेस का प्रधान होना आदि भारत के धर्मनिरपेक्षता के व्यावहारिक उदाहरण हैं।

14. दो सदनीय विधानमंडल - संविधान ने केंद्र में दो सदनीय विधानमंडल की व्यवस्था की है। एक सदन को लोकसभा और दूसरे सदन को राज्य सभा कहा जाता है। लोक सभा सभी मतदाताओं की और राज्य सभा राज्यों का प्रतिनिधित्व करती है। लोकसभा का चुनाव लोगों द्वारा पाँच वर्षों के लिए किया जाता है। राज्यसभा एक स्थाई सदन है और इसके मेंबरों को 6 साल के लिए चुने जाते है, लेकिन एक तिहाई हर एक-दो साल मगर से रिटायर हो जाते हैं। लोकसभा को पांच साल के कार्यकाल से पहले भंग नहीं किया जा सकता है, लेकिन राज्य सभा को सदन के रूप में भंग नहीं किया जा सकता। 

15. एकीहिरी संगठित न्यायपालिका - भारत चाहे एक संघात्मक राज्य है, लेकिन यहाँ केंद्र और राज्य सरकारों के कानूनों के अनुसार न्याय के लिए केंद्र और राज्यों के लिए अलग अदालतों की व्यवस्था नहीं की है। भारत में एकहिरी संगठित न्याय प्रणाली की व्यवस्था की है। न्यायिक संगठन में सर्व उच्चतम न्यायालय सबसे ऊंची न्यायालय है और इसके नीचे राज्यों की उच्च न्यायालय हैं।

16. स्वतंत्र न्यायपालिका - सुप्रीम कोर्ट और उच्च न्यायालयों की व्यवस्था करने समय, संविधान निर्माताओं ने उन सभी सिद्धांतों को अपनाने की कोशिश की है जो एक स्वतंत्र न्यायपालिका के लिए आवश्यक हैं। न्यायाधीशों को नियुक्त करने की शक्ति विधान मंडल या जनता को नहीं दी गयी, बल्कि यह अधिकार राष्ट्रपति को दिया गया, जो मुख्य न्यायाधीश और कुछ अन्य न्यायाधीशों की सलाह पर न्यायाधीशों की नियुक्ति करता है। जब केंद्रीय संसद न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम पास करती है, तो सुप्रीम कोर्ट और राज्य उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति और राज्यों के उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों के परिवर्तन, न्यायिक नियुक्ति आयोग की सिफारिशें  के अनुसार होगा। न्यायाधीशों का कार्यकाल भी एक निश्चित आयु पर आधारित होता है। सर्व उच्च न्यायालयों के न्यायाधीश 65 वर्ष की आयु और राज्यों के उच्च न्यायालयों के न्यायाधीश 62 वर्ष की आयु में रिटायर होते हैं। न्यायाधीशों का वेतन और भत्ते भी काफी अधिक हैं।  न्यायाधीशों के लिए योग्यता भी बहुत अधिक है। हमारा मतलब है कि एक स्वतंत्र न्यायपालिका के सभी सिद्धांत भारतीय संविधान में अपनाये गये हैं।

17. संविधान की सर्वोच्चता और न्यायिक समीक्षा का अधिकार - हालाँकि संविधान का कोई भी अनुच्छेद स्पष्ट रूप से संविधान की सर्वोच्चता और न्यायिक समीक्षा का अधिकार नहीं बताता है, लेकिन ये दो तथ्य हमारे संविधान की मुख्य विशेषताएं हैं। भारत सरकार के प्रत्येक अंग को और प्रत्येक संवैधानिक अधिकारी को शक्तियां संविधान द्वारा दी गयी हैं। वे संविधान के बाहर किसी भी शक्ति का उपयोग नहीं कर सकते। यह सत्य साबित करता है कि भारत का संविधान सर्वोच्च है और भारत में किसी व्यक्ति का शासन नहीं है, बल्कि कानून का शासन है। संविधान की सर्वोच्चता तभी बनी रह सकती है, जब न्यायपालिका के पास न्यायिक समीक्षा की शक्ति हो। इस अधिकार के तहत, सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालयों को उन कानूनों या कार्यकारी आदेशों को रद्द करना होगा जो किसी भी तरह से संविधान का उल्लंघन करते हैं। ये सभी तथ्य संविधान की सर्वोच्चता, भारत में कानून के शासन और भारतीय न्यायपालिका द्वारा न्यायिक समीक्षा के अधिकार के अस्तित्व की पुष्टि करते हैं।

18. एकहिरी नागरिकता - भारत में संयुक्त राज्य अमेरिका की तरह दोहरी नागरिकता नहीं है, बल्कि एकहिरी नागरिकता है। इसका मतलब है कि भारत में किसी के पास राज्यों की नागरिकता नहीं है। हर व्यक्ति पूरे भारत का नागरिक हो सकता है। संयुक्त राज्य अमेरिका में, सभी को पहले उस राज्य की नागरिकता प्राप्त करनी होगी जिसमें वह पैदा हुआ है या रहता है, और साथ ही उसे संयुक्त राज्य अमेरिका की नागरिकता भी प्राप्त होती है। स्विट्जरलैंड में भी, दोहरी नागरिकता प्रदान की जाती है। लेकिन भारतीय संविधान में ऐसा कोई व्यवस्था नहीं है।

19. बालग मताधिकार - भारत के संविधान ने एक अलग सांप्रदायिक चुनाव प्रणाली के बजाय एक संयुक्त चुनाव प्रणाली को अपनाया है। इसके इलावा, भारत का संविधान में बालग मताधिकार का सिद्धांत लागू किया गया है। 18 वर्ष या उससे अधिक आयु के प्रत्येक पुरुष और महिला को बिना किसी भेदभाव के मतदान का अधिकार दिया गया है। 

अब तक 17 लोकसभा चुनाव इसी सिद्धांत के आधार पर हुए हैं। 16 वीं लोकसभा चुनाव मई 2014 में हुए थे और 17 वीं लोकसभा चुनाव अप्रैल मई 2019 में हुए हैं। भारत ने कुछ अनिवासी भारतीयों को मतदान का अधिकार देने की भी घोषणा की है।

20. सभी उम्मीदवारों को अस्वीकार करने का अधिकार - 27 सितंबर, 2013 को सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक निर्णय में भारत में चुनावी प्रक्रिया में क्रांतिकारी परिवर्तन का आदेश दिया। सर्वोच्च अदालत के उस निर्णय द्वारा भारती मतदाताओं को यह तय करने का अधिकार दिया गया है कि अगर किसी मतदाता चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों में से यदि कोई उम्मीदवार पसंद नहीं आये तो वह सभी उम्मीदवारों को अस्वीकार करने के अपने अधिकार का प्रयोग कर सकता है। इस प्रयोजन के लिए, मतदाता को वोटिंग मशीन पर वह बटन दबाना पड़ता है जो कहता है कि "उपरोक्त में से कोई भी नहीं।" (None of the Above - NOTA)।  यह पहली बार है कि भारतीय मतदाताओं को एक ऐसा अधिकार दिया गया है जो भारतीय लोकतंत्र को सच्चा लोकतंत्र बनाने की शक्ति रखता है। राजनीतिक उम्मीदवारों को टिकट देते समय उम्मीदवार संबंधी गंभीरता से विचार करेंगे क्योंकि उनके द्वारा चुनाव के लिए खडा किया गया उम्मीदवार, मतदाताओं द्वारा अस्वीकार कर दिया जाता है, तो यह उस पार्टी के साथ-साथ रद्द किये जा रहे उम्मीदवार के लिए बहुत ही निराशाजनक स्थिति होगी।

चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश का पालन किया और आवश्यक बदलाव किए। यदि किसी चुनाव क्षेत्र में इलेक्ट्रिक मशीनों के बजाय बैलेट पेपर का उपयोग किया जाता है, तो बैलेट पेपर पर एक बॉक्स होगा, जो कहेगा "उपरोक्त में से कोई नहीं।" (None of the Above - NOTA)। जो मतदाता सभी उम्मीदवारों को अस्वीकार करना चाहता है, वह इस बॉक्स में एक मुहर लगा सकता है। चुनाव आयोग ने यह स्पष्ट कर दिया था कि मतदाताओं ने सभी उम्मीदवारों को अस्वीकार करने के अपने अधिकार का प्रयोग किया, तब भी सबसे अधिक मत पाने वाले उम्मीदवार को ही विजेता घोषित किया जाएगा। सभी उम्मीदवारों को अस्वीकार करने के अपने अधिकार का प्रयोग करने वाले मतदाताओं को किसी भी उम्मीदवार के पक्ष में नहीं गिना जाएगा, बल्कि सभी उम्मीदवारों के खिलाफ गिना जाएगा। वोट का परिणाम विभिन्न उम्मीदवारों को प्राप्त मतों की वास्तविक संख्या के आधार पर होगा और मतदाताओं के वोट जिन्होंने सभी उम्मीदवारों को अस्वीकार कर दिया है, निर्णय में कोई भूमिका नहीं निभाएंगे। जिस उम्मीदवार को सबसे ज्यादा वोट मिले, उसे विजेता घोषित किया जाएगा।

21. साँझी चुनाव प्रणाली - स्वतंत्रता-पूर्व भारत में, चुनावी प्रणाली सांप्रदायिक आधार पर चुनाव प्रणाली आधारित थी। मुस्लिम, सिख और कई अन्य जातियों के लिए स्थान निश्चित थे। उन स्थानों से उम्मीदवार केवल उस धर्म या वर्ग के ही हो सकते थे जिस धर्म या वर्ग के लिए स्थान निक्षचित थे और उन स्थानों से उस धर्म या वर्ग के लोग ही मतदान कर सकते थे जो उस धर्म या वर्ग से संबंधित थे। जिस धर्म या वर्ग के लिए स्थान राखवें थे। अगर मुस्लिमों के लिए कोई स्थान आरक्षित है, तो वहां मुस्लिम चुनाव लड़ सकता था और मुस्लिम ही वोटिंग कर सकते थे। लेकिन स्वतंत्र भारत में, इस तरह की सांप्रदायिक प्रणाली की जगह पर एक साँझी चुनावी प्रणाली कर दी गयी है। धर्म के आधार पर  कोई भी स्थान राखवां नहीं रखा गया, केवल अनुसूचित जाति, अनुसूचित वर्ग और अनुसूचित कबीले के लिए कुछ स्थान आरक्षित रखें गये है, उन स्थानों से चुनाव तो अनुसूचित जाति के उम्मीदवार ही लड सकते है। लेकिन वोट देने का अधिकार सभी को है।

22. अनुसूचित जाति और पिछड़े कबीलों के लिए विशेष प्रावधान - समानता के अधिकार को असल में लागू करने के लिए, भारत के संविधान के द्वारा छूत छात को समाप्त कर दिया है। किसी भी रूप में छूत छात करना कानूनी अपराध है। इसके अलावा, संविधान अनुसूचित जातियों को कुछ विशेषाधिकार दिये गये है। संसद और राज्य विधानसभाओं में 2009 में पास एक कानून अनुसार 25 जनवरी 2020 तक अनुसूचित जातियों और पिछड़ी जातियों के लिए 84 और 47 स्थान आरक्षित किये गये हैं। इसी तरह, सरकारी नौकरियों में कुछ उनकी संख्या के अनुपात में कुछ स्थान आरक्षित किये गये है। इसके अलावा, संविधान लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में एंग्लो-इंडियन जाति के सदस्यों के नामांकन के लिए व्यवस्था की है।

23. अनुसूचित जाति और अनुसूचित कबीलों के लिए राष्ट्रीय आयोग - मई 1990 में, संसद ने संविधान का 68वां संशोधन पास किया। इस संशोधन के तहत, संविधान ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित कबीलों के लिए एक राष्ट्रीय आयोग की व्यवस्था की गयी, लेकिन जून 2002 में दोनों के लिए अलग-अलग आयोग गठित किए गए थे।  वर्तमान में अनुसूचित जातियों के हितों के विकास को सुनिश्चित करने के लिए एक अलग आयोग है जिस को "अनुसूचित जातियोंके लिए राष्ट्रीय आयोग" (National Commission for scheduled castes) और अनुसूचित कबीलों के हितों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए "अनुसूचित कबीलों के लिए  राष्ट्रीय आयोग" (National Commission for scheduled Tribes) कहा जाता है। इन दोनों आयोगों के अध्यक्ष और सदस्य राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किए जाते हैं और ये दोनों आयोग अपने-अपने क्षेत्राधिकार के अनुसार अनुसूचित जातियों और कबीलों के हितों के विकास के लिए संविधान में किए गए प्रावधानों को लागू करने के लिए सरकार को आवश्यक सिफारिशें करते हैं।

24. कुछ अन्य संवैधानिक आयोग - इन आयोगों के अलावा, संविधान निम्नलिखित आयोगों की भी व्यवस्था की है: 

(1) चुनाव आयोग (Election Commission)

(2) राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग (National Commission for Minorities)

(3) राष्ट्रीय महिला आयोग (National Commission for Women)

(4) संघ लोक सेवा आयोग (Union Public Service Commission)

(5) राज्य लोक सेवा आयोग (State Public Service Commission)

(6) सांझी लोक सेवा आयोग (Joint Service Commission)

(7) महालेखा निरीक्षक (Comptroller and Auditor General)

ये सभी आयोग अपने-अपने क्षेत्रों में अपने अधिकार क्षेत्र का उपयोग करते हैं।

25. आपातकालीन शक्तियां - भारत का संविधान राष्ट्रपति को आपातकाल की स्थिति घोषित करने की शक्ति देता है। राष्ट्रपति निम्नलिखित परिस्थितियों में आपातकाल की स्थिति की घोषणा कर सकता है।

(i) युद्ध, बाहरी हमले या सशस्त्र विद्रोह (Armed Rebellion) के कारण या इनमें से किसी के होने की संभावना के कारण।

(ii) यदि राज्य में संवैधानिक प्रबंध असफल हो जाए या असफल होने की संभावना हो।

(iii) देश को वित्तीय संकट का खतरा होने पर।

इन परिस्थितियों में, राष्ट्रपति आपातकाल की स्थिति की घोषणा कर सकता हैं।

26. हिंदी केंद्र सरकार की सरकारी भाषा है - भारत के संविधान में कुल 22 भाषाओं को मान्यता दी गई है और हिंदी को देवनागरी लिपि में केंद्र की सरकारी भाषा घोषित किया गया है। हिंदी के विकास के लिए केंद्र और राज्य सरकारों को विशेष जिम्मेदारी दी गई है ताकि हिंदी जल्द से जल्द अंग्रेजी की जगह ले सके। जहां पर यह वर्णनयोग है कि संविधानिक पक्ष से हिंदी को राष्ट्रीय भाषा का अधिकार दिया गया है। असल सचाई यह है कि कोई भी भाषा राष्ट्रीय भाषा नहीं है।

27. स्थानिक स्तर के लोकतंत्र को संवैधानिक मान्यता - जड़ें स्तर दिसंबर 1992 में, भारत की संसद ने संविधान के 73 वें और 74 वें संशोधन को पास किया। 73वें संशोधन द्वारा पंचायतो संबंधी और 74वें संशोधन द्वारा शहर क्षेत्र की स्थानिक संस्थाओं संबंधी महत्वपूर्ण संवैधानिक व्यवस्था की गई। इन संशोधनों के लागू होने से पहले स्थानीय स्तर के लोकतांत्रिक संबंध में संविधान में कोई विशेष व्यवस्था नहीं थी। इन संशोधनों द्वारा ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में स्थानीय संस्थाओं के बारे संविधानिक व्यवस्थाओं किये जाने से हमारे देश में ग्रामीण और शहरी क्षेत्र के स्थानक लोकतंत्र को संविधानिक मानता प्राप्त हो गई।

28. अंतर्राष्ट्रीयवाद - वर्तमान युग अंतर्राष्ट्रीयवाद का युग है। किसी भी देश के लिए अंतर्राष्ट्रीय दुनिया से बाहर अकेले रहना संभव नहीं है। यहां तक ​​कि सबसे बड़ा और सबसे शक्तिशाली देश, संयुक्त राज्य अमेरिका अपनी आवश्यकताओं के लिए अन्य राज्यों पर निर्भर करता है। हमारे भारतीय संविधान की भी अंतर्राष्ट्रीयवाद एक महत्वपूर्ण विशेषता है। यह विशेषता अनुच्छेद 51 से प्रगट होती है। अनुच्छेद 51 में यह व्यवस्था है कि -

(i) राज्य अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा के विकास के लिए प्रयास करेगा।

(ii) राज्य राष्ट्रों के बीच न्यायिक और सनमानयोग संबंध स्थापित करने का प्रयास करेगा।

(iii) राज्य अंतर्राष्ट्रीय कानून और अंतर्राष्ट्रीय संधियों की जिम्मेदारी संबंधी सम्मान विकसित करने और संगठित लोगों के विहार में सुधार करने का प्रयास करेगा।

(iv) राज्य अंतर्राष्ट्रीय विवादों को फैसलों के माध्यम से उत्साहित करने के लिए प्रयास करेगा।

ये सभी व्यवस्थाएँ अंतर्राष्ट्रीयवाद की पुष्टि करती हैं। हमारे संविधान में इन व्यवस्थाओ को राज्य की नीति के निदेशक सिद्धांत के रूप में अंकित किया हैं। राज्य की नीति के निदेशक सिद्धांत न्याययोग नहीं हैं, इसलिए इन व्यवस्थाओं को अदालतों द्वारा लागू नहीं किए जा सकता। यहां यह उल्लेखनीय है कि अंतर्राष्ट्रीयवाद संबंधी ये व्यवस्था भारतीय संविधान की विशेषताएं तब हो सकती हैं, लेकिन किसी भी पक्ष से उन्हें भारतीय संविधान के मौलिक सिद्धांत कहना उचित नहीं होगा।

29. राज्य सरकारों की व्यवस्था - भारतीय संविधान ने चाहे एक संघात्मक प्रणाली की व्यवस्था की है। जम्मू और कश्मीर राज्य के अलावा किसी भी राज्य के पास अलग संविधान होने का अधिकार नहीं है। भारत में 28 राज्य और 7 केंद्र शासित प्रदेश हैं। तेलंगाना के नए राज्य का फैसला केंद्रीय मंत्रिमंडल द्वारा किया गया है। जब संसद तेलंगाना राज्य की स्थापना के लिए आवश्यक कानून पास करेंगी तो भारत में राज्यों की संख्या 29 हो जाएगी। केंद्र की तरह राज्यों की भी संसदीय शासन प्रणाली होती है।

राज्य की नाममात्र कार्यपालिका की व्यवस्था गवर्नर के रूप में असली कार्यपालिका की व्यवस्था मुख्यमंत्री की अध्यक्षता अधीन मंत्रिपरिषद के रूप में की गयी है। छह राज्यों में दो सदनी विधानमंडल और बाकी के राज्यों में एक सदनी विधान मंडल की व्यवस्था की है। जहां विधान सभा के दो सदन है। वहाँ निचले सदन को विधान सभा ऊपर के सदन को विधान परिषद कहा जाता है। जिन राज्यों में विधान सभा का केवल एक सदन है, उस सदन को विधान सभा (Legislative Assembly) कहा जाता है।

निष्कर्ष (Conclusion)

भारतीय संविधान की मुख्य विशेषताओं पर विचार करने के बाद, हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि संविधान के निर्माताओं ने किसी विशेष मत या सिद्धांत के आधार पर संविधान का निर्माण नहीं किया था, बल्कि भारतीय परिस्थितियों के अनुसार, उनका उद्देश्य एक आदर्श संविधान बनाना था। हम पूरी तरह से एम. पी. शर्मा (M.P. Sharma) के दृष्टिकोण से सहमत हैं, "संविधान के निर्माताओं का उद्देश्य एक मौलिक या अद्भुत संविधान नहीं था, बल्कि वे एक अच्छा संविधान बनाना चाहते थे। हमारे विचार में, वह इस प्रयास में काफी हद तक सफल हुए हैं।

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