अधिकारों की परिभाषा और विशेषताएं

इंसान एक सामाजिक प्राणी है और उसके लिए समाज के बिना जीवित रहना और विकसित करना बहुत मुश्किल है। समाज में रहने वाला व्यक्ति तभी विकसित हो सकता है जब उसे विकास के लिए समाज या राज्य से आवश्यक सुविधाएं मिलें। इन सुविधाओं को अधिकार कहा जाता है।
अधिकारों की परिभाषा और विशेषताएं

अधिकारों की परिभाषा (Definition of Rights) - "अधिकारों" की परिभाषा विद्वानों ने अलग-अलग रूप में दी है, जैसे कि -
  1. वाइल्ड (Wilde) के अनुसार, "कुछ कार्य को करने की स्वतंत्रता की उचित मांग अधिकार है।"
  2. बोसांके (Bossanquet) के अनुसार, "अधिकार ऐसी माँगें हैं जिसे समाज प्रवान करता है और राज्य लागू करता है।"
  3. लास्की (Laski) ने अधिकारों की बहुत सुंदर परिभाषा बताई है उनके अनुसार, "अधिकार उन सामाजिक अवस्थाओं का नाम है जिनके बिना कोई व्यक्ति पूर्ण रूप से विकास नहीं कर सकता।"
  4. डॉ बेनी प्रसाद (Dr. Beni Prasad) के अनुसार, “अधिकार सामाजिक जीवन की वे स्थितियाँ हैं जिनके बिना मनुष्य सामान्य रूप से अपना पूर्ण विकास नहीं कर सकता।"
  5. श्रीनिवास शास्त्री (Sriniwas Shastri) के अनुसार, "संक्षेप में, अधिकार वह व्यवस्था, नियमों या रीति की है जो किसी समुदाय के कानून द्वारा प्रवानित है और नागरिकों के सर्वोच्च नैतिक कल्याण में सहायी है।"
  6. टी. एच. ग्रीन (T.H. Green) के अनुसार, "अधिकार वे शक्तियां हैं जो मनुष्य के नैतिक प्राणी होने की वजह से उसके पेशे की पूर्ति में आवश्यक हैं।"
  7. सालमंड (Salmond) के कथन अनुसार, अधिकार वह हित है जो उचितता के नियम द्वारा सुरक्षित है। यह एक ऐसा हित है जिसका सत्कार करना उचित है और जिसका उल्लंघन एक गलती है।"
  8. हॉलैंड के अनुसार, अधिकार किसी एक व्यक्ति की ऐसी शक्ति है जो दूसरों के कार्य को प्रभावित कर सकती है। यह शक्ति अपनी ताकत के कारण नहीं बल्कि समाज की राय और शक्ति होती है।
संक्षेप में, हम कह सकते हैं कि चाहे विभिन्न विद्वानों ने अधिकारों की अलग-अलग परिभाषाएँ दी हैं, लेकिन सभी परिभाषाओं का तथ्य यह है कि अधिकार मनुष्य की वैध माँगें हैं जो उसके विकास और कल्याण के लिए आवश्यक हैं और जिन्हें समाज या राज्य उचित समझता हुआ स्वीकार कर लेता है। दूसरे शब्दों में, अधिकार सामाजिक जीवन की वे स्थितियाँ हैं जो व्यक्ति के पूर्ण विकास के लिए आवश्यक हैं और जिन्हें समाज द्वारा स्वीकार किया जाता है और जिन्हें राज्य द्वारा प्रबंधित किया जाता है।

अधिकार के मुख्य तत्व और विशेषताएं

अधिकारों की उपर्युक्त परिभाषाएँ से अधिकारों के कुछ विशेष तत्वों को प्रकट होते हैं जिन्हें संक्षेप में निम्न व्यक्त किया गया है:-

1. अधिकार गतिशील और परिवर्तनशील हैं - किसी भी समाज में किसी भी प्रकार के अधिकारों को स्थायी रूप से निश्चित नहीं किया जा सकता है। अधिकारों की मांग प्रत्येक समाज के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और परिवर्तनशील वातावरण पर निर्भर करती है। इसी कारण जैसे जैसे सभ्यता विकास कर रहीं है हर देश में नए अधिकारों की मांग की जा रही है और जिन अधिकारों का आधुनिक वैज्ञानिक युग में कोई महत्व नहीं रहा है, उन्हे खत्म किया जा रहा है।

2. अधिकार किसी व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह का दावा है - अधिकार समाज से कुछ सुविधाएं प्राप्त करने के लिए व्यक्ति का एक दावा है। मनुष्य की कई स्वाभविक रूचियाँ हैं। उनकी संतुष्टि के लिए मनुष्य को सामाजिक अवस्थाओं की आवश्यकता है और  व्यक्ति या व्यक्तियों का समूह इन अवस्थाओं की मांग करता है और समाज और राज्य उस दावे को उचित मानते हुए प्रवान कर लेते हैं।

3. अधिकार उचित और नैतिक होने चाहिए - कोई भी नागरिक जुआ या आत्महत्या करने की अनुमति नहीं मांग सकता क्योंकि ये मांगें व्यक्ति के सर्वोत्तम हित में नहीं हैं। केवल उन मांगों को अधिकारों के रूप में स्वीकार किया जा सकता है जो व्यक्ति के मानसिक और शारीरिक विकास के लिए आवश्यक है, जो नैतिक रूप से स्वीकार्य हैं। व्यक्ति के अनैतिक जो अनुचित मांगों को राज्य द्वारा अधिकार के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता।

4. अधिकारों को समाज द्वारा मान्यता दी जानी चाहिए - किसी व्यक्ति की कोई मांग तब तक अधिकार नहीं बन सकती जब तक कि उसे समाज की स्वीकृति नहीं मिल जाती। समाज व्यक्तियों की केवल उन मांगों को स्वीकार करता है जो सभी मानव के विकास के लिए आवश्यक हैं। व्यक्ति की विशेष स्वार्थी मांगें समाज स्वीकार नहीं करता। इसलिए उन्हें अधिकार नहीं कहा जा सकता।

5. अधिकार सभी के लिए समान हैं - उन सहूलतों का नाम अधिकार है जो समाज के प्रत्येक व्यक्ति के विकास के लिए दिए गए हैं। अधिकारों के क्षेत्र में ऊच-नीच, अमीर और गरीब, सफेद और काले और पुरुष और महिला के बीच कोई भेदभाव नहीं है। उन सुविधाओं को अधिकार कहना उचित नहीं है जो कुछ व्यक्तियों तक सीमित हैं जैसा कि - दक्षिण अफ्रीका में, सितंबर 1992 तक रंग के आधार पर गोरों द्वारा प्राप्त राजनीतिक विशेषाधिकारों को अधिकार नहीं कहा जा सकता था, क्योंकि उन विशेषाधिकारों का केवल गोरों द्वारा आनंद लिया जाता था और काले लोगों को उन विशेषाधिकारों से वंचित किया जाता था।  जन्म, जाति, धर्म, रंग, नस्ल, वंश आदि के आधार पर प्रदान की गई सुविधाओं को सार्वभौमिक अधिकार नहीं कहा जा सकता है।

6. अधिकार हमेशा सीमित हैं - नागरिक का प्रत्येक अधिकार सीमित है क्योंकि यदि अधिकारों की खुल दी जाए, तो समाज की शांति खत्म हो जाएगी। जिस व्यक्ति को भाषण देने और विचार प्रकट करने की आजादी है, वह इस स्वतंत्रता का उपयोग हिंसा के कार्यों को कराने के लिए नहीं कर सकता। उसका अधिकार सीमित है और इसे केवल समाज के स्वीकृत क्षेत्र में ही प्रयोग किया जा सकता है।

7. अधिकार और कर्तव्य संबंधित हैं - अधिकार और कर्तव्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। प्रत्येक अधिकार से कर्तव्य संबधित है। मेरा जो अधिकार है, वह दूसरों का कर्तव्य है। जो दूसरों का अधिकार है, वह मेरा कर्तव्य है। कर्तव्यों के बिना किसी भी अधिकार का कोई महत्व नहीं है।

8. अधिकारों का कल्याणकारी चरित्र  - अधिकारों का स्वरूप कल्याणकारी होना चाहिए, जिसका अर्थ है कि अधिकार केवल व्यक्ति के व्यक्तिगत विकास के लिए ही नहीं होने चाहिए, बल्कि उनका रूप ऐसा होना चाहिए जिससे पूरे समाज का कल्याण हो सके। जो सहूलियतें या स्थितियां कुछ व्यक्तियों के विकास के लिए लाभकारी होती हैं परंतु समूचे समाज के कल्याण के लिए योगदान नहीं देती समाज की तरफ से अधिकारों के रूप में सवीकार नहीं की जा सकती।

9. अधिकारों को राज्य द्वारा संरक्षित किया जाना चाहिए - राज्य द्वारा अधिकारों के संरक्षण का प्रावधान अधिकारों की एक आवश्यक विशेषता है। जिस अधिकारों को राज्य द्वारा संरक्षित नहीं किया जा सकता है, सामाजिक हैं जीवन में उनका महत्व कम ही होता है।

10. अधिकार केवल एक मानव समाज में ही संभव हैं - णानव अधिकारों के लिए समाज का अस्तित्व बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि मानव को मानव समाज में ही उसके अधिकार दिए जा सकते हैं। समाज के बाहर किसी को कोई भी कानूनी अधिकार नहीं मिल सकता है। अधिकारों के पीछे कानूनी शक्ति होना अधिकारों की पहली शर्त है। समाज के बाहर कानूनी अधिकार कौन देगा और कौन इसे लागू करेगा? राज्य के बिना अधिकारों को लागू नहीं किये जा सकते और समाज द्वारा मान्यता प्राप्त अधिकारों को लागू करने के लिए राज्य कानूनी बल प्रदान करता है।

निष्कर्ष (Conclusion)

अधिकारों के तत्वों के बारे में, हम संक्षेप में कह सकते हैं कि अधिकार व्यक्ति की उन जायज मांगों का नाम है जिसे समाज द्वारा स्वीकार किया जाता है और जिसे राज्य द्वारा लागू किया जाता है। अधिकार सभी के लिए सामान्य हैं और इनको एक सीमित तरीके से आनंद लिया जा सकता है। अधिकारों के साथ कर्तव्यों का होना जरुरी है और अधिकार केवल समाज में ही संभव हो सकते हैं। समाज के बाहर अधिकारों के अस्तित्व की कल्पना नहीं की जा सकती है। अधिकार केवल कुछ नागरिकों तक सीमित नहीं हैं, बल्कि समानता के आधार पर सभी नागरिकों को प्रदान किए जाते हैं।

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