न्याय की विशेषताएँ क्या है?

न्याय की विशेषताएँ निम्नलिखित अनुसार है -
  1. न्याय के अर्थों के प्रति सर्वसम्मति की कमी (Lack of Unanimity with Regards to the Meaning of Justice)
  2. नैतिक अवधारणा ( Ethical Concept)
  3. प्रचलित मूल्यों से संबंधित (Related to the Prevalent Values)
  4. परिवर्तनशील अवधारणा (Dynamic Concept)
  5. कर्तव्यों की पूर्ति (Fulfilment of Duties)
  6. बहु-आयामी अवधारणा (Multi-Dimensional Concept)
  7. न्याय केवल समाज में ही संभव है (Justice is possible only in Society)

What are the features of justice?

  1. न्याय के अर्थों के प्रति सर्वसम्मति की कमी (Lack of Unanimity with Regards to the Meaning of Justice) - न्याय के अर्थों के प्रति सर्वसम्मति नहीं है। प्रसिद्ध यूनानी दार्शनिक प्लेटो ने न्याय के कर्तव्यों की पूर्ति के रूप में विचार किया। उनके अनुसार न्याय का सारांश अपने निश्चित कार्यों को पूरा करना है। मध्य युग में, न्याय को धार्मिक रूप दिया गया था, और कई विचारकों ने कहा था कि परमात्मा द्वारा स्थापित प्रणाली में अपने कर्तव्यों को पूरा करना ही न्याय है। मार्क्सवादी विचारधारा ने न्याय को आर्थिक प्रणाली से संबंधित माना है। उदारवादी विचारधारा स्वतंत्रता को ही न्याय का सारांश मानती है। हमारा मतलब है कि न्याय के अर्थों के संबंधी अनेक विचारधाराएं प्रचलित हैं और हर विचार का आधार अलग है।
  2. नैतिक अवधारणा ( Ethical Concept) - न्याय के अर्थ के संबंध में चाहे सर्वसम्मति न हों, लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि न्याय मुख्य रूप में एक नैतिक अवधारणा है। यह अवधारणा वास्तव में उच्चता और तर्कशीलता की अवधारणा है। किसी भी तत्व को उचित या अनुचित ठहराने का निर्णय नैतिक मूल्यों पर निर्भर करता है। व्यक्ति के जो काम स्थापित नैतिक मूल्यों की उलंघना करते हैं उनको न्याय पूर्ण नहीं माना जा सकता है। नैतिकता के बिना न्याय की अवधारणा की कल्पना भी नहीं की जा सकती है।
  3. प्रचलित मूल्यों से संबंधित (Related to the Prevalent Values) - न्याय की अवधारणा मूल्यों पर आधारित है। मूल्य परिवर्तनशील होते हैं। कुछ मूल्य प्रचलित सामाजिक व्यवस्था के अनुकूल न होने के कारण धीरे-धीरे से खत्म हो जाते हैं। न्याय की अवधारणा का ऐसे पुराने मूल्यों के अनुकूल होंना अनुचित होगा। लेकिन जो मूल्य समाज में प्रचलित होते हैं, उन मूल्यों के अनुकूल होना, न्याय की अवधारणा के लिए आवश्यक है। बदलती परिस्थितियों के अनुसार, नए मूल्य भी उत्पन्न होते हैं। जिन मूल्यों को महान सामाजिक स्वीकृति मिलती है, उन मूल्यों के साथ भी न्याय की अवधारणा का संबंधित होना आवश्यक है।
  4. परिवर्तनशील अवधारणा (Dynamic Concept) - न्याय की अवधारणा एक परिवर्तनशील अवधारणा है, समय के साथ-साथ सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक परिस्थितियों भी बदलती है। सभ्यता के विकास के फलस्वरूप व्यक्तियों के विचारों और दुष्टीकोण में भी परिवर्तन होता है। इस तरह के बदलाव न्याय की अवधारणा को भी परिवर्तनशील बनाते हैं। एक समय था जब प्रसिद्ध यूनानी विद्वान अरस्तू ने भी गुलामी को सही बताया था।  लेकिन आधुनिक समय में ऐसा अप्राकृतिक व्यवस्था को किसी भी सूरत से उचित नहीं माना जा सकता। किसी समय छुआछूत की प्रथा भारतीय समाज की एक महत्वपूर्ण विशेषता थी, लेकिन हमारे आज हमारे देश में छुआछात प्रथा एक "कानूनी अपराध है।" इन तत्वों से यह स्पष्ट है कि न्याय की अवधारणा परिवर्तनशील अवधारणा है।
  5. कर्तव्यों की पूर्ति (Fulfilment of Duties) - न्याय की अवधारणा में कर्तव्यों की पूर्ति का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है। सभी व्यक्तियों को अपने जीवन में कई भूमिकाएँ निभानी होती हैं। उसकी प्रत्येक भूमिका के साथ उसके अनेक ही कर्तव्य संबंधित होते है। यदि व्यक्ति अपने निश्चित कर्तव्यों का पालन नहीं करता है, तो वह अपनी संबंधित भूमिका को पूरा नहीं कर सकता है। ऐसी स्थिति में न्याय की उपस्थिति संभव नहीं हो सकती। न्याय की प्राप्ति तभी हो सकती है जब कोई व्यक्ति अपने निश्चित कर्तव्यों को पूरा करे। यदि प्रत्येक व्यक्ति अपनी-अपनी भूमिकाओं से संबंधित कर्तव्यों की पूर्ति करें, तो ही न्यायपूर्ण समाज व्यवस्था का अस्तित्व और न्याय की प्राप्ती हो सकती है।
  6. बहु-आयामी अवधारणा (Multi-Dimensional Concept) - न्याय का विचार सामाजिक जीवन के हर पहलू से संबंधित है। सामाजिक जीवन के कई पहलुओं के कारण, न्याय का विचार भी बहु-आयामी विचार है। उदाहरण के लिए, सामाजिक न्याय, कानूनी न्याय, आर्थिक न्याय, राजनीतिक न्याय आदि न्याय की अवधारणा व्यवहार समाज के विभिन्न पहलू हैं।
  7. न्याय केवल समाज में ही संभव है (Justice is possible only in Society) - न्याय का मूल भाव ही व्यक्तियों को उनकी उचित मांगों अनुसार न्याय देना है। स्पष्ट है कि न्याय की धारना मनुष्य के समाज में रहते सभी व्यक्तियों से संबंधित है। समाज से बाहर किसी प्रकार के न्याय का अस्तित्व नहीं हो सकता। राजनीति शास्त्र एक सामाजिक विज्ञान है। समाजिक विज्ञान की महत्वता केवल समाज में ही अपनी न्यायपूर्ण भूमिका निभाने में होती है।
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